-ब्रहमर्शी चिंतक (राजीव कुमार)
” अजीब दास्ताँ है ये , कहीं शुरू कहीं ख़त्म ।
ये मंजिलें हैं कौन सी, न वो समझ सकें न हम ।। ”
बदले ज़माने के अनूरूप बदलते राजनैतिक परिवेश में बदली हुई राजनैतिक बिसात की अनिवार्यता पर ब्रम्हर्षि चिंतक व विचारक ” राजीव कुमार ” के व्यक्तिगत शोध पर आधारित प्रस्तुति
बीते जमाने में उपरोक्त शीर्षक गाने के बोल से सुसज्जित एक फ़िल्म आई थी ” दिल अपना और प्रीत पराई ” जिसके गीतकार थे शैलेन्द्र एवं संगीतकार थे शंकर जयकिशन तथा गाने को महान गायिका लता मंगेशकर ने गाया था ।फ़िल्म को बने तो कितने वर्ष बीत गए लेकिन इस गाने की खनक आज भी दिल एवं दिमाग में वैसे ही गूँजती है जैसे ये आज की ही कोई नई फ़िल्म हो ।आखिर इस गीत की खनक दिलों में गूँजे भी तो क्यूँ न गूंजें , बाकायदा इसके बोल का सम्बन्ध जो मनुष्य के जीवन से काफी गहरा है ।
गीत , संगीत और साहित्य का मनुष्य के जीवन से सदैव गहरा रिश्ता रहा है और रहेगा ।
उपरोक्त गानों के बोल का शब्दिक अर्थ अथवा भाव का जब हम आज के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन करते हैं तो इसका सीधा और अन्योन्याश्रय सम्बन्ध भूमिहार ब्राम्हण समेत समस्त सवर्ण समाज से है ।गीतकार ने गाने के शुरुआती बोल में मनुष्य के जीवन में हो रहे परिवर्तन और उसके अंतरंग में हुए बदलाव पर गहरी संवेदना प्रकट की है तथा खुद से इसके कारण पर प्रश्न करते हुए अपनी नासमझी पर क्षोभ भी व्यक्त किया है ।
दरअसल उपरोक्त गाने का जिक्र इस लेख में करने के पीछे इस गीत में छुपे रहस्य और इसके मर्म को अपने भूमिहार ब्राम्हण समाज के समक्ष रखना है । मेरी अदम्य इच्छा है कि भूमिहार ब्राम्हण समाज इस गीत को गुनगुनाए और मन ही मन इसके सार एवं भाव को समझने का प्रयास करे ।
आज भूमिहार ब्राम्हण समेत तमाम सवर्ण समाज की राजनैतिक एवं सामाजिक स्थिति बेहद नाजुक होती जा रही है फिर भी ये समाज बेफिक्र हो सब कुछ चुप चाप देख रहा है।आये दिन राजनीति हेतु नेताओं एवं राजनैतिक दलों द्वारा तमाम ऐसी घोषणाएँ की जाती हैं जिससे इस समाज के ऊपर दुष्प्रभाव देखने को मिल रहा है और समाज में बेरोजगारी व उदासी देखने को मिल रही है ।
मंडल की जातिगत राजनीति के प्रारम्भ के पश्चात् से ही विगत 28 सालों के दौरान तमाम तरह के उठापटक इस समाज ने देखे हैं। जहाँ एक तरफ जातिगत राजनीति के प्रारम्भ के पश्चात् अनपढ़ एवं आपराधिक लोगों के बढ़े हुए राजनैतिक प्रभुत्व की वजह से पढ़े लिखे विद्वान एवं दूरदर्शी लोगों में निराशा का भाव जागृत हुआ है वहीँ समाज में पुरुषार्थियों एवं कर्म वीरों की संख्या भी घटी है । कारण कि पढ़े लिखे विद्वान एवं दूरदर्शी लोग समाज को आगे बढ़ाने हेतु सदैव चिंतित एवं प्रयासरत रहते थे जबकि आपराधिक एवं बाहुबलियों के राजनैतिक प्रवेश ने इस परंपरा को ही समाप्त कर दिया ।
इन आपराधिक लोगों के राजनैतिक रहनुमा बनने के कारण भूमिहार ब्राम्हण समाज की दुर्दशा निरंतर हो रही है क्योंकि ये आपराधिक लोग अपने स्वर्थ के कारण राजनीति में आये हुए हैं एवं इनको अपने समाज से कोई वास्ता नहीं ।इन अपराधिक लोगों के भीतर अपने समाज हेतु न तो किसी प्रकार की करूणा का भाव है और न ही कोई दूरदृष्टि । इन आपराधिक लोगों की सच्चाई यह है कि ये संसद अथवा विधानमंडल में जाने के पीछे अपने लिए तमाम तरह की ठेकेदारी एवं कमाई के साधन को सुनिश्चित करना तथा कानून से खुद को बचाने जैसी निजी मंशा रखते हैं ।दरअसल ये वहाँ जाकर केवल वही चर्चा करेंगे कि फलना टेंडर हमको चाहिए या फलना जगह का तसिली हमें चाहिए। ये कभी चर्चा नही करेंगे कि उनके एरिया में कोई फैक्ट्री खुले एवं पढ़े लिखे नौजवान लोगों को किस प्रकार अधिक से अधिक रोजगार मिले । इनकी मंशा साफ रहती है कि इन्हें झंडा ढोने हेतु बेरोजगार नौजवान भी तो चाहिये , इसलिए आम जन बेरोजगार रहे और इनका झंडा ढोए। जैसा कि ऊपर में मैंने फ़िल्म के नाम का जिक्र किया था ” दिल अपना और प्रीत पराई ” ठीक उसी प्रकार ये आपराधिक लोग जातिगत उन्माद और प्रपंच करके वोट तो अपने समाज का ठग लेते हैं लेकिन जब अपने समाज से प्रीत करने का वक्त आता है तो ये उससे पराए जैसा व्यव्हार करने लगते हैं ।
इन सारे सामाजिक समस्याओं की गहराई पर जब सूक्ष्म नजर डालता हूँ तो जो प्रमुख कारक मुझे नजर आता है वह है इस समाज के अंतःकरण में आया व्यापक बदलाव । दरअसल मनुष्य के अंतःकरण में आया बदलाव उसके सम्पूर्ण जीवन व कलेवर को प्रभावित करता है और आज भूमिहार ब्राम्हण समाज के साथ यही हो रहा है ।
लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि अपराधियों एवं बाहुबलियों के राजनैतिक प्रवेश ने समाज में दलाली व भ्रष्टाचार तथा बेरोजगारी को बढ़ावा दिया है जिसका कोपभाजन पूरा समाज हो रहा है ।लोग पढ़लिखकर भी अंधे और मूर्ख होते जा रहे हैं और नतीजा पतन के शिकार भी हो रहे हैं । जिस समाज के लोगों ने भी विगत 20-25 सालों के दरम्यान तरक्की की है वहाँ निश्चित ही समाज के हितैषी लोगों की सक्रीय भूमिका रही है ।जबकि इसके ठीक विपरीत भूमिहार ब्राम्हण समेत तमाम सवर्ण समाज के हितैषी लोगों को छल वश निष्क्रिय कर दिया गया । ऐसा दुष्प्रचारित किया गया कि जैसे मानों अपराधियों व बाहुबलियों के बिना इस समाज की कोई हैसियत ही नहीं और इसका अस्तित्व ही जैसे मिट जाएगा । इसका नतीजा ये हुआ कि सारे युवा आज पथभ्रष्ट हो चुके हैं और इनको आपराधिक व बाहुबलियों में ही अपना भविष्य सुरक्षित दीखता है ।
दरअसल इस लेख को लिखने और इसके शीर्षक को उस पुराने गीत संबोधित करने के पीछे मेरी मंशा साफ है और मैं भूमिहार ब्राम्हण समाज समेत समस्त सवर्ण समाज से यह अपील करना चाहता हूँ कि वो इस विषय पर आत्म चिंतन करें कि कौन अपना और कौन पराया? आखिर हम और हमारा समाज जा किधर रहा है और हमारी मंजिल क्या है? हमें इसे समझना होगा ।हमें बदले राजनैतिक हालात और परिवेश के मुताबिक अपनी रणनीती बदलनी होगी और एकता के सूत्र में बंधना होगा और यह तभी संभव है जब संत स्वभाव के एवं सरल चरित्र के लोग हमारे आदर्श और मार्गदर्शक बनेंगे ।
हमें यह समझना होगा कि हम कहीं किसी व्यक्ति अथवा पार्टी विशेष के फैलाए झूठे मायाजाल एवं कुचक्र में फँसकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे ? अपना नुकसान तो नहीं कर रहे? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम दूसरे के हाथों की कठपुतली बन चुके हैं ? हमें इन चीज़ों को काफी सूक्ष्मता एवं समग्रता से देखने की जरूरत है। जरूरत हो तो हमें अपनी अलग राजनैतिक पार्टी भी बनाना चाहिये और साथ ही साथ वर्तमान में हमारे खिलाफ नीतियां बनाने वाली सभी पार्टी का बहिष्कार भी करना चाहिए ।
दरअसल स्व हिताय स्व सुखाय की आपाधापी ने भूमिहार समेत तमाम सवर्ण समाज के धृतराष्ट्रों को इतना बड़ा अँधा बना दिया है कि इस समाज के वर्तमान राजनैतिक क्षत्रपों को यह भी पता नहीं कि वो क्या कर रहे हैं , उनकी मंजिल क्या है और उन्हें जाना किधर है ?
आज भूमिहार समेत तमाम सवर्ण समाज अपने निजी स्वार्थ में इतना गिर चुका है कि इस समाज का हर व्यक्ति तुच्छ स्वार्थ हेतु भी अपने ही समाज के अन्य को येन केन प्रकारेण बरगलाने में लिप्त है । कोई झूठे समाजवाद तो कोई झूठे राष्ट्रवाद के नाम पर अपने ही समाज और अपने ही भाई बंधू का गला घोंटने तक को तैयार बैठा है। किसी को इसकी परवाह तक नहीं कि उसके आज के इन छद्म कृत्यों का नकारात्मक असर उनकी ही आने वाली पीढ़ियों पर पड़ेगा जिसका संकेत देखने में मिल भी रहा है । फिर भी जल्दी से खुद कुछ भी पा लेने की लालसा भूमिहार समेत तमाम हर सवर्ण समाज पर अत्यधिक हावी हो चुकी है । इस लालसा का सबसे बुरा संकेत तो तब मिलता है जब इस समाज के पढ़े लिखे बुद्धिजीवी तक को निजी स्वार्थवश इसी समाज के रावण यानि आपराधिक चरित्र के लोगों के साथ राजनीति करते और उनके साथ रणनीति बनाते देखा जाता है।
स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि भूमिहार समेत तमाम सवर्ण समाज के पूंजीपति अपने निजी स्वार्थवश तथाकथित पिछड़े समाज के लोगों के अधीन उनकी गलत नीतियों के बावजूद कार्य करने को भी जोर शोर से उत्सुक दिखाई देते हैं । आज हर तथाकथित पिछड़े नेता और उसकी पार्टी का वित्तीय मददगार कोई न कोई अगड़ा समाज का ही व्यक्ति है । प्रत्येक राजनैतिक पार्टी के सर्वोच्च पद पर आज अधिकांशतः किसी न किसी तथाकथित पिछड़े को आसानी से देखा जा सकता है और अगड़े समाज के लोग इनका झोला ढोने व वित्तीय मदद से लेकर अपने समूचे ज्ञान के भण्डार तक को इन गन्दी मानसिकता से ओत प्रोत तथाकथित पिछड़े वर्ग के शासकों को देने एवं इनपर न्यवछावर करने तक को आतुर दिखाई दे रहे हैं ।
समाजवाद एवं राष्ट्रवाद का सिद्धांत ये नहीं कहता कि अपने समाज की बलि देकर हम दूसरों का भला करें और दूसरों की भलाई करें। लेकिन झूठे समाजवाद और राष्ट्रवाद के प्रचार प्रसार में आज भूमिहार ब्राम्हण समेत तमाम सवर्ण समाज को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है । और तो और आज का सवर्ण युवा भी अपने अग्रजों द्वारा की गई भूल पर भी सोंचने तक को तैयार नहीं है और वह उनसे भी ज्यादा अपने समाज को नुकसान करने को लालायित दिख रहा है। कोई यह तनिक भी मानने को तैयार ही नहीं है कि इस संख्या आधारित परिमाणात्मक राजनीती के चक्कर में पड़ने के बजाए हमें गुणात्मक राजनीति करने की जरूरत है जो हमारे पूर्वज किया करते थे । आज कि इस परिमाणात्मक राजनीती ने हमें सिर्फ और सिर्फ खोखला ही किया है फिर भी हम हाथ पर हाथ धरकर बैठे हुए हैं और अपनों का ही नुकसान करने को आतुर दिखाई पड़ते हैं।
मेरे विगत कई लेखों पर मुझे मेरे समाज के ही कई बुद्धिजीवी लोग सलाह देते नजर आए एवं मुझे राष्ट्रवाद की परिभाषा समझाने लगे। मैं अपने समाज के उन समाजवादियों एवं राष्ट्रवादियों से पूछना चाहता हूँ कि जब अपने समाज के कोई व्यक्ति आपसे किसी प्रकार के उचित मदद करने की अपील करते हैं तब आपका राष्ट्रवाद और समाजवाद कहाँ चला जाता है ? आपकी जमीर क्यों मर जाती है ? आपकी सारी ताकत केवल चंद निजी स्वार्थवश तथाकथित पिछड़े वर्ग के पोषण तक ही सीमित क्यों है ?
उपर्युक्त सारी बातों का सार यह है कि बदले हुए राजनैतिक व सामाजिक परिवेश में हमें अपना अस्तित्व बचाने के लिए एकीकृत होकर नए ढंग से नई सोंच एवं तैयारी के साथ राजनैतिक बिसात बिछाने की जरूरत है ताकि हम अपनी आने वाली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित कर सकें एवं राष्ट्र व समाज की तरक्की में अपना समुचित योगदान भी दे सकें ।