पलायन कर हमारा आर्थिक विकास तो हुआ लेकिन समाजिक विकास में पीछे छुटते चले गये। नतीजा यह हुआ कि पंचायत प्रतिनिधित्व में भी पिछड़ते चले गये।हमारे गृह प्रखंड कटरा के कटरा पंचायत में ही हमारे मुखिया के प्रत्याशी महज एक और दो मत से दो बार मुखिया का चुनाव हार गये थे। जबकि उनके परिवार का ही बीस सदस्य शहर में रहते हुये मतदान करने नही जा पाया था। तीसरे चुनाव में सभी सदस्यों को घर पर रहकर मतदान करने को आवश्यक किया गया तो वह चुनाव जीत गये।
शहर में रहें, लेकिन अपने गांव के जमीन से भी जुड़े रहना ही हमें समाजिक रूप से शक्ति प्रदान करता है। भागमभाग और विकास के लिए परेशान होकर हमने अपना मूल जड ही भूल गया। अपने अपने बच्चों को पढाई लिखाई के लिए ऐसा पलायन करा दिये कि उसे गांव में पहचानने वाला ही न रहा।जब हमलोग शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तो स्थानीय शहर में रहकर पढाई करने को प्राथमिकता दी जाती थी। मेरे शहर लंगट सिंह महाविद्यालय में नामांकन होना तो गौरव की बात होती थी। बिहार के विभिन्न जिलों से विद्यार्थी आकर यहाँ पढाई करते थे। शहर में एक से बढकर एक बढिया महाविद्यालय है लेकिन अब तो इन सब महाविद्यालयों में भी हम अपने बच्चों का नामांकन वही कराते है। सरकारी विद्यालयों या महाविद्यालयों में बच्चों को पढाना तो ईज्जत के खिलाफ माना जाने लगा है। गांव में कभी बच्चों को न जाने देने की संस्कृति पैदा होने के बाद बच्चे अपने पैतृक संपत्ति को भी नही पहचानने लगे है। अब हम कल्पना कैसे करे कि हमारा मजबूत समाजिक पकड़ बना रहे।उदाहरण तो सबलोग श्री बाबू का जरूर देते हैं।लेकिन श्री बाबू के समय के वातावरण और व्यवस्था की परिकल्पना नही कर पाते है। उस वक्त हमारे पूर्वज गांव में रहते थे। खेती किसानी से जुड़े थे। दरबाजे पर माल मवेशी रहता था।जिसके कारण गांव के अन्य लोग भी हम पर आश्रित थे। हमारे पुर्वज एक अच्छा वातावरण बनाकर अन्य लोगों को भी स्वयं से जोड़कर रखे थे। जिस कारण हम राजनैतिक और समाजिक रूप से मजबूत थे। आज स्थिति पलट गयी है। हमने खेती किसानी छोड़ महानगरों के तरफ रूख कर लिया।या तो हमने अपना खेत अन्य लोगों को ठेका-बटैया पर दे दिया या फिर बेचकर उसे नगर या महानगर में संपत्ति खरीदा।नतीजा समाजिक और राजनैतिक कमजोरी के रूप में उभर कर सामने है।हम यह नही कहते हैं कि विकास के इस दौड़ में लोग केवल गांव पकड़े रहे। नौकरी,व्यापार सब करे, लेकिन गांव से मुंह न मोड़े। खेती को बिल्कुल भुलना हमारी एक कमजोरी है।ऐसा नही है कि खेती किसानी में केवल घाटा ही होता है।मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि खेती किसानी से बढिया कोई व्यापार नही हो सकता है।लेकिन उसे बढिया ढंग से करने की जरूरत है।
खेती में मात्र तीन ही कमी है।
1. आपसी बंटबारा के कारण खेतों का छोटा-छोटा आकार का हो जाना, 2. खेतिहर मजदुरों की कमी, 3. मौसम पर निर्भर करना।
अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि आखिर कौन ऐसा व्यापार है जिसमें जोखिम नही है? आज के पढे लिखे युवा उस तीनों कमजोरी को दुर कर सकते हैं।चाय बगान के तर्ज पर संगठित खेती कर सकते हैं।आखिर हमारे यहाँ के ही मजदुर पंजाब, हरियाणा,तमिलनाडु आदि प्रदेशों में जाकर खेत मजदूर के रूप में काम कैसे करते है,यह जानने की जरूरत है।यह भी समझने कि जरूरत है कि अन्य वर्ग के लोग हमारा ही खेत ठेका पर लेकर संपन्न कैसे हो रहे है? खेती किसानी भी एक लाभदायक व्यवसाय है। इसे नजरअंदाज करना हमारी कमजोरी है। एक मेरे यहाँ ही काम करने वाला एक मेरे स्वजातीय ने मात्र सात कट्ठा जमीन में मिर्च की खेती कर छ:महीने में पचहत्तर हजार का कमाई किया है।
केंद्र सरकार द्वारा चलायी जा रही योजना मनरेगा को कृषि जोड़ने के लिए भी पढे लिखे लोग को अपने अपने स्तर से आवाज उठाने की जरूरत है। चूंकि मनरेगा योजना में मजदुरों को साल में सौ दिन रोजगार देने की बाध्यता है और किसी पंचायत में अब मिट्टी का काम बचा नही है।अगर इस योजना को कृषि से जोड़ दिया जाये तो देशहित एवं किसान हित में एक क्रांति होगी।
लेखक परिचय: श्री संजय चौधरी, आप राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता है और समाज को लेकर अपने विचार रखते हैं । आप मूलतः मुज़फ़्फ़रपुर से हैं ।
“इसे नजरअंदाज करना हमारी कमजोरी है। एक मेरे यहाँ ही काम करने वाला एक मेरे स्वजातीय ने मात्र सात कट्ठा जमीन में मिर्च की खेती कर छ:महीने में पचहत्तर हजार का कमाई किया है।”
Hum logon ko ek mahine me 2.5 lakhs milta hai. To fir aap isko kaise justify karenge
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