कोरोनायुग के लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की समस्या बड़े पैमाने पर उभरकर सामने आयी है.बिहार के संदर्भ में यह समस्या और विकराल बनकर उभरी है और पहली बार ये आंकड़े सामने आए कि बिहार के मजदूर दो जून रोटी के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक यानी पूरे भारत में यत्र-तत्र भटक रहे हैं.आज जब लॉकडाउन के कारण देश भर के उद्योग धंधे ठप्प पड़े हैं,रोजगार मिल नहीं रहा तो बिहार से पलायन कर चुके मजदूर अपने घर आने के लिए लालायित हैं.इनमें से कुछ घर लौट चुके हैं, कुछ पथरीली राहों पर पैदल ही चल चुके हैं और कुछ बेबसी से सरकारी मदद का इंतजार कर रहे हैं.बहरहाल बिहार लौटे प्रवासी मजदूर घर लौटने की जद्दोजहद में इतनी पीड़ा झेल चुके हैं कि उनकी तरफ से ये आवाज़ उठने लगी है कि रोटी नमक खाकर अपने गाँव में गुजारा कर लेंगे, लेकिन अब दूसरे राज्य में कमाने नहीं जायेंगे.उनके दिल का यह दर्द उनकी आँखों में छलक जाता है.सरकार से भी उनकी यही ख्वाहिश है क्योंकि कोरोना और रहने-खाने की समस्या से तात्कालिक निजात पाने के लिए वे घर लौट तो गए हैं लेकिन उन्हें अब यह चिंता सताने लगी है कि यदि ऐसे हालत लम्बे समय तक रहे तो वे फिर क्या करेंगे? अपने और अपने परिवार का भरण - पोषण कैसे करेंगे?
प्रवासी मजदूरों से संवाद की जरुरत – अभयानंद
बहरहाल जब हमने जाने-माने शिक्षाविद और बिहार के पूर्व डीजीपी अभयानंद जी से बात की और प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि , “बिहार आए प्रवासी मजदूरों का ग्रामीण कृषि और उसकी अर्थवयवस्था से जुड़े लोगों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए. इसे एक विपत्ति की तरह न लेकर अवसर की तरह लेना चाहिए.
सच्चाई ये है कि गाँवों में काम की कोई कमी नहीं है. बड़े पैमाने पर पलायन की वजह से बिहार की कृषि व्यवस्था और उसकी स्थानीय अर्थव्यवस्था लम्बे समय से चरमरा सी गयी है. सामाजिक स्तर पर भी अविश्वास की एक खाई सी बनी सो अलग. कृषि कार्यों को करवाने के लिए बाहर से मजदूरों को बुलाकर काम करवाना पड़ रहा था. इसलिए आज जरुरत है कि इन्हें मौका दिया जाये और अतीत की तरफ लौटा जाए जब हमारे पूर्वजों और मजदूरों का रिश्ता मजदूर और मालिक का नहीं बल्कि रिश्तों की पक्की डोर से बंधा था. इसलिए दोनों एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते थे और दुःख-सुख के साथी थे. आज उसी भावना को फिर से विकसित और स्थापित करने की नितांत आवश्यकता है.
भले हम उन्हें उतना पैसा न दे सके, लेकिन दुःख – सुख के साथी बनेंगे तो अपनेपन का ये एहसास कृषक और मजदूर के बीच फिर से विश्वास की डोर को मजबूत करेगा और बिहार के खेतों में फसल लहलहा उठेगी.इसके लिए जरुरी है कि हर गाँव में एक व्यक्ति इसका नेतृत्व करे. घर लौटे प्रवासी मजदूरों से बातचीत करे और उन्हें गाँव में ही रहकर ग्रामीण कृषि और अर्थव्यवस्था में योगदान करने के लिए प्रेरित करे. उनका स्वागत करे और समझाए कि गाँव में काम की कोई कमी नहीं .
हाँ अभी चूँकि कोरोना वायरस का खतरा मंडरा रहा है इसलिए उनसे बातचीत के क्रम में सोशल डिस्टेंसिंग और बाकी सावधानियों का भी पूर्णरूपेण ध्यान रखा जाना चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नारे लोकल, वोकल और ग्लोबल को सही मायने में यह जीने का वक़्त है. जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संपदा की अब भी कोई कमी नहीं, बस उसे संरक्षित करते हुए सूझबूझ से उपयोग करने की जरुरत है.
निष्कर्ष
प्रवासी मजदूरों और कृषकों के बीच यदि संवाद से इस तरह की समझ बन जाती है तो बिहार की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन संभव है.ये वक़्त है जब साथ मिलकर हम विपत्ति को अवसर में बदल सकते हैं. बिहार के अतीत के गौरव को दुबारा पाने का भी यह एक सुनहरा अवसर है. ( इस मुद्दे पर आपके विचार भी आमंत्रित है)
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बिहार अन्न का एक बहुत बड़ा स्रोत है। बिहार में कृषि की हालात तभी सुधरेगी, जब सरकार, मजदूर वर्ग एवं किसानों का रिश्ता फिर से एक होगा, तब जाकर वही गीत दोहराए जाएंगे-मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती। जय भू मंत्र।
सौ प्रतिशत सहमत बिहार को खेत और किसान ही समृद्ध बना सकता है और भूमिहारों को जो यश,प्रसिद्धि व धन मिला वो जमीन की बदौलत ही मिला
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