-अभिषेक शर्मा (विचारक: भूमि-समाज )
चुनाव के दौरान हम सब ने किसी न किसी का पक्ष लिया है। बेगूसराय में गिरिराज और कन्हैया को ले कर आपस में लड़े। मोतिहारी में आकाश को लेकर आपस में लड़े। वैशाली में नोटा, वीणा को ले कर लड़े। और कमोबेश हर जगह आपस में लड़े। सब ने एक दूसरे को दलाल, एजेंट, देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग का प्रमाणपत्र जारी किया।

लेकिन जिसके लिए भी लड़े, चाहे वो कोई भी हो, क्या आप उनसे अपने समाज के लिए कुछ ताले खुलवा पाएँगे? क्या वो हमारी बात सुनेंगे, मानेंगे? यदि हाँ, तो कैसे? यदि ना तो फिर लड़े क्यों?
कोई राजनेता अपनी ज़रूरत के समय समाज का, उसकी भावना का, उसकी संख्या का दोहन कर ले और बाद में “बड़ा नेता” बन जाए, ऐसा नहीं होना चाहिए। और वो तभी संभव है जब समाज नेता से बड़ा हो, नेता समाज से बड़ा नहीं। लेकिन ऐसा कैसे होगा? निराशा न जताएँ, उपाय सोचें।