18 मार्च 1999, सेनारी गाँव. वह भयानक मंजर था और चश्मदीद अब भी याद करके काँप उठते हैं. चश्मदीदों में से एक संजय और राकेश भी थे जिनकी जान इसलिए बच गयी क्योंकि शराब के नशे में माओवादी हत्यारों को उनके जिंदा होने का पता ही नहीं चला.

चश्मदीद बताते हैं कि माओवादी सेनारी गाँव के ग्रामीणों को कतार में खड़ा करके ऐसे काट रहे थे जैसे कि भेड़-बकरियों को काटा जाता है या मुर्गे को जब्बह किया जाता है. 18 मार्च 1999 की उस काली रात में वहां मौजूद सेनारी का हर किसान बेबसी से अपनी मौत का इंतजार कर रहा था.

राकेश शर्मा बताते हैं कि छह कातिल धारदार हथियार से एक-एक कर युवकों की गर्दन रेत रहे थे. कुछ का पेट फाडकर अंतरिया तक निकाल डाली गयी.वो हैवानियत की परकाष्ठा थी. गौरतलब है कि सभी युवाओं को दो ग्रुप में दर्जनों हमलावरों ने कसकर जकड़ रखा था.

संजय बताते हैं कि लाशों के ढेर पर पड़े वे सांस रोके मौत का इंतजार कर रहे थे. हत्यारे आए और उनपर वार भी किया और फिर मरा हुआ जानकार फेंक कर चले गए.

राकेश शर्मा की कहानी और भयानक और रोंगटे खड़े कर देने वाला है. राकेश की हत्या के इरादे से जब हत्यारों ने उनकी गर्दन पर वार किया तो उन्होंने अपना बचाव करना चाहा. इसपर शराब के नशे में धुत्त माओवादियों ने उनका पेट फाड़ डाला.

लेकिन इसके बावजूद उनकी साँसे नहीं रुकी और न उनकी हिम्मत टूटी. उन्होंने अपने शर्ट को फाड़ा और कसकर पेट को बाँधा और गांव की ओर लुढ़कने लगे. फिर किस्मत ने भी साथ दिया और जान बच गयी.

आज जब सबूतों के अभाव में 23 हत्यारे बरी हो गए तो सेनारी गाँव में एक बार फिर मातम पसर गया है. ये मातम उस मातम से किसी तरह से कम नहीं.



-ज़मीन से ज़मीन की बात – भू-मंत्र-