babu ambuj sharma

पहली किश्त में आपने बाबू झूलन सिंह के बारे में पढ़ा. हमने जैसा कि आपको पहले लेख में बताया कि बाबू झूलन मगध में एंटी नक्सल मूवमेंट के पुरोधा था.अब दूसरी किश्त में पढ़िए मगध में नक्सल का पदार्पण और भूमिहार समाज के खिलाफ षड्यंत्र-

बाबू झूलन सिंह को समझाने के लिए उस दौर के परिवेश को समझना आवश्यक है इसलिए १९५२ तक मगध के राजनैतिक स्थिति से आपसब को हम प्रथम खण्ड में अवगत करवा चुके हैं। अब सामाजिक ताना बाना और नक्सल के उदय के विषय में समझें। चूंकि पश्चिम पूँजीवाद का चेहरा ब्रिटेन था ऐसे में आरंभ से चली आ रही भारतीय समाजवादी व्यवस्था के करीब यदि कोई ठहरता था तो वो कम्यूनिष्ट या साम्यवाद सोच था , चूँकि संसार के सर्वश्रेष्ठ समाजवादी व्यवस्था को अंग्रेजी और मुगलिया हुकूमत विकृत कर चुकी थी ऐसे मे नये विकल्प के ओर लोगों का रूझान होना स्वभाविक था।

( यह भी पढ़े –  नक्सलवाद के मौलिक दर्शन पर सर्जिकल स्ट्राइक : भाग 1 ) 

किन्तु जो निर्णय भाव प्रधान हो हमेशा सही नही होता और निष्पक्ष तो कतई नही होता।जहाँ पूँजीवाद में केवल धन को प्रथमिकता दी जाती है वही साम्यवाद में समानता को प्रधान मानकर प्रतिभा मर्दन अर्थात प्रतिभा को दबा दिया जाता है।भारतीय जनमानस ने भावावेश में साम्यवाद के प्रति रूझान दिखाया जो वास्तव में दर्शन कहलाने का अधिकारी ही नही है।मार्क्स का संपूर्ण दर्शन भाव प्रधान है ज़िसके विषय में मैं कुछ महीनों पहले विस्तार से लिख चुका हूँ।किन्तु जब जमाना colonisation का हो तो पीछे कौन रहता , अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भाव नही पूँजी ही चलती है ।
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् वैश्विक आर्थिक मंदी और रुसी अर्थव्यवस्था के खास्ताहालात को कौन नहीं जानता ? ऐसे में ब्रिटेन से नाराज भारतीय प्रजा गर साम्यवाद से प्रभावित होती दिखे तो इतना व्यापक बाजार कौन हाथ से जाने देना चाहेगा ?
रुस ने साम्यवादी साहित्य का प्रसार भारत में आरंभ किया इसी क्रम में बंगाल के एम एन रॉय सन १९२५ में भारत में Radical Communism नाम की थ्योरी लेकर आये । कांग्रेस से क्रुद्ध होकर Radical Democratic Party की स्थापना की ।
हालांकि नरेन्द्र भट्टाचार्य उर्फ मानवेन्द्र नाथ रॉय उर्फ डा महमूद { क्रान्तिकारी गतिविधियां नाम बदल बदल कर चलाते थे ) लेनिन के अलावा स्वामी विवेकानन्द विपिन चंद्र पाल और वीर सावरकर से भी काफी प्रभावित थे किन्तु इनके उग्र और कट्टर सोच को इनके उत्तराधिकारी समझ न पाये और मानवेन्द्र के दर्शन से राष्रवाद का लोप होता गया और पश्चिमी दर्शन का प्रभाव बढ़ता गया ।
फलस्वरूप  सशस्त्र आंदोलनों का दौर चल पडा किन्तु ये दौर आजादी के बाद भी न थमा और सन १९६७ में इन सारे unorganized militia को बंगाल के नक्सलवारी गाँव में चारू माजूमदार और कानू सान्याल के नेतृत्व में organised रूप दे दिया गया जो कम्यूनिष्टों का आनौपचारिक सशस्त्र नाम नक्सलाइट है वो इसी गाँव के नाम पर पडा है । ये कैसी राष्ट्रभक्ति है भाई मार्क्स लेनिन माओ के चेलों की ?शुरुआत में कानू सान्याल {जो माओत्से तुंग का प्रशंसक और करीबी था} ने कहा  था ~

किसानों और मजदूरों की खराब हालत की जिम्मेदार सरकार की गलत नीतियां हैं ।

तो भैया फिर सरकार से कैसे लड़ोगे ? शस्त्र से ? सरकार कौन है ? तुम सशस्त्र आंदोलन में शुरु से भारतीय सैनिकों को मारते आये हो , तो सेना में क्या सरकार या नेता के बेटे जाते हैं या उन्ही गरीब किसानों और मजदूरों के ? फ़िर तुम किसानों मजदूरों  के कौन से हक़ के लिये और क्यों लड रहे हो भाई ? किसने हक़ दिया तुम्हे ?
तुम्हारे तरफ भी किसान मजदूर के बेटे सेना के तरफ भी किसान मजदूर के बेटे आपस मे लड कर मर २हे फिर तुम्हारे और सरकार के बीच लडाई कहाँ रही ?

फिर ये माजरा क्या है ?

दोस्तो शुरू से भारत पर चीन की दृष्टि २ही है और जब सान्याल और माजूमदार जैसे चेले राष्ट्रद्रोही चेले मिल २हे हो तो मौके पर चौका कौन न मारना चाहेगा?
भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है और भारतीय अर्थव्यवस्था के रीढ २हे हैं कृषक और मजदूर। गर हल वाले हाथों मे हथियार दे दिया जाये तो भारत की अर्थव्यवस्था चरमरा जायगी और चीनी सामान खरीदने को मजबूर होगा क्योंकि चीन पडोसी है आयात में खर्च कम आयेगा। इसी नीति के तहत चीन के सह पर भारत में सशस्त्र नक्सल की शुरूआत हुई।
किन्तु ये आन्दोलन सरकार से कम किसानो और मजदूरो के मध्य युद्ध मे बदल दिया गया क्योंकि सरकार से सीधा लडने से चीन समर्थन उजागर हो सकता था तो भू स्वामी किसानो के विरुद्ध मजदूरो को खड़ा करना आवश्यक था , इससे कृषि बंद आर्थिक क्षति क्राइम रेट उपर , अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धूमिल , कोई डर से भारत   निवेश को तैयार नही ये बोलकर की वहा मानव मूल्यों अधिकारो की कद्र नही, फिर चीन को फायदा ये प्लान था ।

किन्तु ये बीमारी मगध कैसे पहुंची ?

टिकारी के भूतपूर्व महाराज महाराजा मित्रजित सिंह जी द्वारा लागू भूमिबंदोबस्ती श्रीबाबू और सरदार पटेल को अच्छी लगी और उसे पूरे देश में लागू करने पर विचार होने लगा। वो व्यवस्था मगध प्रमण्डल {टिकारी राज } मे पिछले सौ सालो से थी तो गर मूल पर चोट किया जाये तो पूरा प्लान चौपट हो जाता है अतः मगध में इस बीमारी को चीन ने बढाने का निश्चय किया और पहले कम्यूनिष्ट पार्टी नाम के नकली चेहरे और सिद्दान्त के साथ मजदूरों को भडकाया और फिर विभत्स खूँखार मानवताद्रोही राष्ट्रद्रोही नक्सली चेहरे के साथ बुद्ध की धरती को रक्त रंजित करना आरंभ कर दिया ।
नक्सलियों के मुख्य टारगेट भूमिहार जाति क्यों ?
नक्सल कारनामे ,मगध में उनका प्रतिकार और राजपूतो द्वारा भूमिहारो का आवाह्न।
अगले भाग में ।
लेखक
।।बाबू अंबुज शर्मा ।।

 

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