राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) में आज भले दो फाड़ हो गया है।। लेकिन कभी बड़ी उम्मीदों से पार्टी का गठन किया गया था और इन उम्मीदों को तब और हवा मिली जब लोकसभा चुनाव में तीन सफलताएं हासिल हुई।। गौरतलब है कि ये इस पार्टी का पहला चुनाव ही था और तीन लोकसभा सीटों पर कब्ज़ा कर इसने नीतीश कुमार की जदयू को भी पीछे छोड़ दिया जिसे सिर्फ एक सीट ही हासिल हुआ।। लगा कि जदयू और राजद के विकल्प के तौर पर ये पार्टी बिहार में खड़ी हो सकती है।। लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का टकराव अक्सर बड़ी-बड़ी पार्टियों को ले डूबता है और नयी पार्टियों की तो बात ही क्या? वे बनने से पहले ही बिखर जाते हैं।। रालोसपा के साथ भी ऐसा ही हुआ।। उम्मीदों की पार्टी परवान चढ़ने के पहले ही दो फाड़ हो गयी।।
पार्टी के संस्थापकों डॉ. अरुण कुमार और उपेंद्र कुशवाहा के टकराव से पार्टी में ऐसी उथल-पुथल मची जो विभाजन के बाद भी अबतक शांत नहीं हुई. दोनों पक्ष एक-दूसरे पर मनमानी का आरोप लगा रहे हैं. लेकिन सब जानते हैं कि उपेन्द्र कुशवाहा कितने महत्वकांक्षी हैं. आपको याद होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव के समय पर अपनी पार्टी की तरफ से कुशवाहा ने अपने आप को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तक घोषित करवा लिया था और भाजपा पर दवाब बनाने की पूरी कोशिश की थी. ये तो विधानसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा तो कुशवाहा ख़ामोशी से केंद्रीय मंत्रीमंडल में अपनी कुर्सी पर बैठ डॉ.अरुण कुमार को निपटाने में लग गए.अब खेल देखिये जिस पार्टी को खड़ा करने में अरुण कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा ने समान रूप से योगदान दिया,उसकी मलाई अकेले उपेंद्र कुशवाहा चाट गए. डॉ.अरुण कुमार को क्या मिला? जबकि जानकार मानते हैं कि रालोसपा की रणनीति तैयार करने,भाजपा के साथ गठजोड़ और पार्टी का ढांचा खड़ा करने में अरुण कुमार का योगदान ज्यादा रहा.
लेकिन जब मोदी सरकार में मंत्री बनने की बात आयी तो उपेंद्र कुशवाहा मंत्री बने. डॉ.अरुण कुमार ने इसपर कोई सार्वजनिक तल्खी भी नहीं दिखाई जबकि कायदे से डॉ.अरुण कुमार को ही मंत्री बनाया जाना चाहिए. लेकिन 'भूमिहार' और 'कुशवाहा' जातिगत फर्क और वोटों की राजनीति आड़े हाथ आ गयी. अब जबकि रालोसपा विभाजित हो चुकी है तब भी उपेंद्र कुशवाहा केंद्रीय राजयमंत्री पद पर विराजमान हैं और डॉ.अरुण कुमार को भाजपा नज़रअंदाज कर रही है.वैसे बिहार भाजपा की ये पुरानी बीमारी रही है जो जाति बिना शर्त इसकी तरफदारी करती है, उसी को ये नज़रअंदाज करता है.नीतिश कुमार तो इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं.भाजपा ने नीतिश को खड़ा किया,सवर्णों ने साथ दिया और एक दसक बाद वही नीतिश सवर्णों और भाजपा की पीठ में छूरा घोंप लालू यादव के साथ गठबंधन कर सत्ता पर फिर से काबिज हो गए.
लेकिन भाजपा ने फिर भी सबक नहीं लिया.अब भी वह कुशवाहा और मांझी को तो खड़ा कर रहा है लेकिन अरुण कुमार को नज़रअंदाज़ कर रहा है.कायदे से उपेंद्र कुशवाहा की जगह डॉ.अरुण कुमार को मंत्रिमंडल में शामिल किया जाना चाहिए. लेकिन कुशवाहा के चश्मे से भाजपा को भूमिहार 'अरुण कुमार' कैसे दिखेगा? लेकिन भाजपा को याद रखना चाहिए नए वोट बैंक के लिए अपने कट्टर समर्थकों को दांव पर लगाना कोई समझदारी का काम नहीं.पता चला न इधर के रहे न उधर के. यही चाणक्य नीति भी कहती है. कुशवाहा और मांझी भाजपा के साथ वही करेंगे जो नीतिश कुमार करेंगे. इसलिए भाजपा को अपना चश्मा बदलने की जरूरत है.वरना इसके दूरगामी परिणाम पार्टी को भुगतने होंगे. आपका भूमिहार और सवर्णों का वोट कुछ ऐसे खिसकेगा कि आपको पता भी नहीं चलेगा. फिर कुशवाहा वोट के साथ झाल बजाईयेगा, यदि वो भी मिल जाए तो...
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